Tuesday, August 23, 2016

प्रेरणा...!


           अमेरिका की बात है, एक युवक को व्यापार में बहुत नुकसान उठाना पड़ा, उसपर बहुत कर्ज चढ़ गया,  तमाम जमीन-जायदाद गिरवी रखना पड़ी,  दोस्तों ने भी मुंह फेर लिया, जाहिर हैं वह बहुत हताश था, कहीं से कोई राह नहीं सूझ रही थी, आशा की कोई किरण बाकि न बची थी । एक दिन वह एक Park में बैठा अपनी परिस्थितियो पर चिंता कर रहा था, तभी एक बुजुर्ग वहां पहुंचे. कपड़ो से और चेहरे से वे काफी अमीर लग रहे थे ।

           बुजुर्ग ने चिंता का कारण पूछा तो उसने अपनी सारी कहानी बता दी - बुजुर्ग बोले - "चिंता मत करो, मेरा नाम जॉन डी. रॉकफेलर है, मैं तुम्हे नहीं जानता, पर तुम मुझे सच्चे और ईमानदार लग रहे हो, इसलिए मैं तुम्हे दस लाख डॉलर का कर्ज देने को तैयार हूँ ।”


           फिर जेब से चेकबुक निकाल कर उन्होंने रकम दर्ज की और उस व्यक्ति को देते हुए बोले- “नौजवान, आज से ठीक एक साल बाद हम इसी जगह मिलेंगे  तब तुम मेरा कर्ज चुका देना ।”  इतना कहकर वो चले गए । युवक चकित था. रॉकफेलर तब अमेरीका के सबसे अमीर व्यक्तियों में से एक थे, युवक को तो भरोसा ही नहीं हो रहा था की उसकी लगभग सारी मुश्किलें हल हो गई हैं ।


           उसके पैरो को पंख लग गये, घर पहुंचकर वह अपने कर्जों का हिसाब लगाने लगा,  बीसवी सदी की शुरुआत में 10 लाख डॉलर बहुत बड़ी धनराशि होती थी और आज भी है । अचानक उसके मन में ख्याल आया, उसने सोचा एक अपरिचित व्यक्ति ने मुझ पर भरोसा किया, पर मैं खुद पर भरोसा नहीं कर रहा हूँ,  यह ख्याल आते ही उसने चेक को संभाल कर रख लिया,  फिर उसने निश्चय किया की पहले वह अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेगा, पूरी मेहनत करेगा की इस मुश्किल से निकल जाए, उसके बाद भी अगर कोई चारा न बचे तो वो उस चैक का इस्तेमाल करेगा ।


           उस दिन के बाद युवक ने खुद को झोंक दिया. बस एक ही धुन थी, किसी तरह सारे कर्ज चुकाकर अपनी प्रतिष्ठा को फिर से पाना हैं । उसकी कोशिशे रंग लाने लगी. कारोबार उबरने लगा, कर्ज चुकने लगा । साल भर बाद तो वो पहले से भी अच्छी स्तिथि में था । निर्धारित दिन ठीक समय वह बगीचे में पहुँच गया, वह चेक लेकर रॉकफेलर की राह देख ही रहा था की वे दूर से आते दिखे, जब वे पास पहुंचे तो युवक ने बड़ी श्रद्धा से उनका अभिवादन किया, उनकी ओर चेक बढाकर उसने कुछ कहने के लिए मुंह खोल ही था की एक नर्स भागते हुए आई और झपट्टा मरकर उस वृद्ध को पकड़ लिया ।


            युवक हैरान रह गया । तब वह नर्स बोली, “यह पागल बार बार पागलखाने से भाग जाता है और लोगों को जॉन डी. रॉकफेलर के रूप में चैक बाँटता फिरता हैं ।” अब तो वह युवक पहले से भी ज्यादा हैरान हो गया । जिस चैक के बल पर उसने अपना पूरा डूबता कारोबार फिर से खड़ा कर लिया वह फर्जी था ।


           पर यह बात जरुर साबित हुई की वास्तविक जीत हमारे इरादे, हौंसले और प्रयास में ही होती है,  यदि हम खुद पर विश्वास रखें और आवश्यकता के मुताबिक प्रयत्न करते रहें तो यक़ीनन किसी भी बाधा अथवा चुनौति से निपट सकते है ।



Tuesday, August 16, 2016

कूडे का ट्रक (गार्बेज)

           एक दिन एक व्यक्ति ऑटो से रेलवे स्टेशन जा रहा था। ऑटो वाला बड़े आराम से ऑटो चला रहा था। एक कार अचानक ही पार्किंग से निकलकर रोड पर आ गयी। ऑटो चालक ने तेजी से ब्रेक लगाया और कार, ऑटो से टकराते टकराते बची। कार चालक गुस्से में ऑटो वाले को ही भला-बुरा कहने लगा जबकि गलती कार- चालक की थी । 

           ऑटो चालक एक सत्संगी (सकारात्मक विचार सुनने-सुनाने वाला) था । उसने कार वाले की बातों पर गुस्सा नहीं किया और क्षमा माँगते  हुए आगे बढ़ गया । 


           ऑटो में बैठे व्यक्ति को कार वाले की हरकत पर गुस्सा आ रहा था और उसने ऑटो वाले से पूछा तुमने उस कार वाले को बिना कुछ कहे ऐसे ही क्यों जाने दिया । उसने तुम्हें भला-बुरा कहा जबकि गलती तो उसकी थी। हमारी किस्मत अच्छी है,  नहीं तो उसकी वजह से हम अभी अस्पताल में होते ।


           ऑटो वाले ने कहा साहब बहुत से लोग गार्बेज ट्रक (कूड़े का ट्रक) की तरह होते हैं । वे बहुत सारा कूड़ा अपने दिमाग में भरे हुए चलते हैं । जिन चीजों की जीवन में कोई ज़रूरत नहीं होती उनको मेहनत करके जोड़ते रहते हैं  जैसे क्रोध, घृणा, चिंता, निराशा आदि । जब उनके दिमाग में इनका कूड़ा बहुत अधिक हो जाता है तो वे अपना बोझ हल्का करने के लिए इसे दूसरों पर फेंकने का मौका ढूँढ़ने लगते हैं । 


           इसलिए मैं ऐसे लोगों से दूरी बनाए रखता हूँ और उन्हें दूर से ही मुस्कराकर अलविदा कह देता हूँ । क्योंकि अगर उन जैसे लोगों द्वारा गिराया हुआ कूड़ा मैंने स्वीकार कर लिया तो मैं भी एक कूड़े का ट्रक बन जाऊँगा और अपने साथ साथ आसपास के लोगों पर भी वह कूड़ा गिराता रहूँगा । 


           मैं सोचता हूँ जिंदगी बहुत ख़ूबसूरत है इसलिए जो हमसे अच्छा व्यवहार करते हैं उन्हें धन्यवाद कहो और जो हमसे अच्छा व्यवहार नहीं करते उन्हें मुस्कुराकर माफ़ कर दो । हमें यह याद रखना चाहिए कि सभी मानसिक रोगी केवल अस्पताल में ही नहीं रहते हैं । कुछ हमारे आस-पास खुले में भी घूमते रहते हैं ।

 
           प्रकृति के नियम: यदि खेत में बीज न डाले जाएँ तो कुदरत उसे घास-फूस से भर देती है । उसी तरह से यदि दिमाग में सकारात्मक विचार न भरें जाएँ तो नकारात्मक विचार अपनी जगह बना ही लेते हैं और दूसरा नियम है कि जिसके पास जो होता है वह वही बाँटता है। "सुखी" सुख बाँटता है, "दु:खी" दुःख बाँटता है, "ज्ञानी" ज्ञान बाँटता है, भ्रमित भ्रम बाँटता है, और "भयभीत" भय बाँटता है । जो खुद डरा हुआ है वह औरों को डराता है, दबा हुआ दबाता है ,चमका हुआ चमकाता है, जबकि सफल इंसान सफलता बाँटता है ।



Monday, August 1, 2016

अनमोल रिश्ता...


            सुश्री वसुंधरा दीदी एक छोटे से शहर के  प्राथमिक स्कूल में  कक्षा 5 की शिक्षिका थीं । उनकी एक आदत थी कि वह कक्षा शुरू करने से पहले हमेशा "आई लव यू ऑल" बोला करतीं । मगर वह जानती थीं कि वह सच नहीं कहती । वह कक्षा के सभी बच्चों से उतना प्यार नहीं करती थीं । कक्षा में एक ऐसा बच्चा था जो वसुंधरा को एक आंख नहीं भाता । उसका नाम आशीष था । आशीष मैली कुचैली स्थिति में  स्कूल आ जाया करता । उसके बाल खराब होते, जूतों के बन्ध खुले, शर्ट के कॉलर पर मेल के निशान । व्याख्यान के दौरान भी उसका ध्यान कहीं और होता । वसुंधरा के डाँटने पर वह चौंक कर उन्हें देखने तो लग जाता.. मगर उसकी खाली-खाली नज़रों से उन्हें साफ पता लगता रहता कि आशीष शारीरिक रूप से कक्षा में उपस्थित होने के बावजूद भी मानसिक रूप से गायब है ।
           
            धीरे  धीरे वसुंधरा को आशीष से नफरत सी होने लगी । क्लास में घुसते ही आशीष.. वसुंधरा की आलोचना का निशाना बनने लगा । सब बुराई के उदाहरण आशीष के नाम पर किये जाते । बच्चे उस पर खिलखिला कर हंसते और वसुंधरा उसको अपमानित करके संतोष प्राप्त करतीं । आशीष ने हालांकि किसी बात का कभी कोई जवाब नहीं दिया । किन्तु वसुंधरा को वह एक बेजान पत्थर की तरह लगता जिसके अंदर अहसास जैसी कोई चीज नहीं थी । प्रत्येक डांट, व्यंग्य और सजा के जवाब में वह बस अपनी भावनाओं से खाली नज़रों से उन्हें देखता और सिर झुका लेता ।

            वसुंधरा को अब इससे गंभीर चिढ़ हो चुकी थी । पहला सेमेस्टर समाप्त हो गया और रिपोर्ट बनाने का चरण आया तो वसुंधरा ने आशीष की प्रगति रिपोर्ट में यह सब बुरी बातें लिख मारी । प्रगति रिपोर्ट कार्ड माता-पिता को दिखाने से पहले प्रधानाध्यापिका के पास जाया करता था । उन्होंने जब आशीष की रिपोर्ट देखी तो वसुंधरा को बुला लिया । 

            "वसुंधरा... प्रगति रिपोर्ट में कुछ तो प्रगति भी लिखनी चाहिए। आपने तो जो कुछ लिखा है इससे आशीष के पिता बिल्कुल निराश ही हो जाएंगे।"        मैं माफी चाहती हूँ, लेकिन आशीष एक बिल्कुल ही अशिष्ट और निकम्मा बच्चा है । मुझे नहीं लगता कि मैं उसकी प्रगति के बारे में कुछ भी अच्छा लिख सकती हूँ । वसुंधरा बेहद घृणित लहजे में बोलकर वहां से उठ आईं ।

            प्रधानाध्यापिका ने एक अजीब हरकत की । उन्होंने चपरासी के  हाथ वसुंधरा की डेस्क पर आशीष की पिछले वर्षों की प्रगति रिपोर्ट रखवा दी । अगले दिन वसुंधरा ने कक्षा में प्रवेश किया तो रिपोर्ट पर नजर पड़ी । पलट कर देखा तो पता लगा कि यह आशीष की रिपोर्ट हैं । "पिछली कक्षाओं में भी उसने निश्चय ही यही गुल खिलाए होंगे ।"  उन्होंने सोचा और कक्षा 3 की रिपोर्ट खोली । रिपोर्ट में टिप्पणी पढ़कर उनकी आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उन्होंने देखा कि रिपोर्ट उसकी तारीफों से भरी पड़ी है । "आशीष जैसा बुद्धिमान बच्चा मैंने आज तक नहीं देखा ।" "बेहद संवेदनशील बच्चा है और अपने मित्रों और शिक्षकों से बेहद लगाव रखता है ।" अंतिम सेमेस्टर में भी आशीष ने प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया है ।

            "वसुंधरा दीदी ने अनिश्चित स्थिति में कक्षा 4 की रिपोर्ट खोली । "आशीष पर अपनी मां की बीमारी का बेहद प्रभाव पड रहा है ।  उसका  ध्यान पढ़ाई से हट रहा है ।"  "आशीष की माँ को अंतिम चरण का  कैंसर हुआ है । घर पर उसका और कोई ध्यान रखनेवाला नहीं है, जिसका गहरा प्रभाव उसकी पढ़ाई पर पड़ा है ।"  आशीष की  माँ मर चुकी है और इसके साथ ही आशीष के जीवन की रमक और रौनक  भी । उसे बचाना होगा...इससे पहले कि  बहुत देर हो जाए । 

            "वसुंधरा के दिमाग पर भयानक बोझ तारी हो गया । कांपते हाथों से उन्होंने प्रगति रिपोर्ट बंद की । आंसू उनकी आँखों से एक के बाद एक गिरने लगे । अगले दिन जब वसुंधरा कक्षा में दाख़िल हुईं तो उन्होंने अपनी आदत के अनुसार अपना पारंपरिक वाक्यांश "आई लव यू ऑल" दोहराया । मगर वह जानती थीं कि वह आज भी झूठ बोल रही हैं । क्योंकि इसी क्लास में बैठे एक उलझे बालों वाले बच्चे आशीष के लिए जो प्यार वह आज अपने दिल में महसूस कर रही थीं..वह कक्षा में बैठे और किसी भी बच्चे से हो ही नहीं सकता था । 

            व्याख्यान के दौरान उन्होंने रोजाना दिनचर्या की तरह एक सवाल आशीष पर दागा और हमेशा की तरह आशीष ने सिर झुका लिया । जब कुछ देर तक वसुंधरा से कोई डांट फटकार और सहपाठी सहयोगियों से हंसी की आवाज उसके कानों में न पड़ी तो उसने गहन आश्चर्य से सिर उठाकर उनकी ओर देखा । अप्रत्याशित रुप से
आज उनके माथे पर बल न थे बल्कि वह मुस्कुरा रही थीं । 

            उन्होंने आशीष को अपने पास बुलाया और उसे सवाल का जवाब बताकर दोहराने के लिए कहा । आशीष तीन चार बार के आग्रह के बाद अंतत: बोल ही पड़ा । इसके जवाब देते ही वसुंधरा ने न सिर्फ खुद खुशान्दाज़ होकर तालियाँ बजाईं बल्कि सभी से भी बजवायी.. फिर तो यह दिनचर्या बन गयी । वसुंधरा अब हर सवाल का जवाब अपने आप बताती और फिर उसके पिछले वर्षों के रेकार्ड के साथ उसकी खूब सराहना व तारीफ करतीं ।  क्लास में अ
प्रत्येक अच्छा उदाहरण आशीष के कारण दिया जाने लगा ।  धीरे-धीरे पुराना आशीष सन्नाटे की कब्र फाड़ कर बाहर आने लगा । 

            अब वसुंधरा को सवाल के साथ जवाब बताने की जरूरत नहीं पड़ती। वह रोज बिना किसी त्रुटि के उत्तर देकर सभी को प्रभावित करता और नये-नए सवाल पूछ कर सबको हैरान भी करता । उसके बाल अब कुछ हद तक सुधरे हुए होते, कपड़े भी काफी हद तक साफ होते जिन्हें शायद वह खुद धोने लगा था । देखते ही देखते साल समाप्त हो गया और आशीष ने दूसरा स्थान हासिल कर लिया यानी दूसरी क्लास । विदाई समारोह में सभी बच्चे वसुंधरा दीदी के लिये सुंदर उपहार लेकर आए और वसुंधरा की  टेबल पर ढेर लग गया । 

            इन खूबसूरती से पैक हुए उपहारों में  पुराने अखबार में बंद सलीके से पैक हुआ एक उपहार भी पड़ा था । बच्चे उसे देखकर हंस पड़े । किसी को जानने में देर न लगी कि उपहार के नाम पर ये आशीष लाया होगा । वसुंधरा दीदी ने उपहार के इस छोटे से पहाड़ में से लपक कर उसे निकाला । खोलकर देखा तो उसके अंदर एक महिलाओं की इत्र की आधी इस्तेमाल की हुई शीशी और एक हाथ में पहनने वाला एक कड़ा था जिसके ज्यादातर मोती झड़ चुके थे । वसुंधरा ने चुपचाप उस इत्र को खुद पर छिड़का और वह कंगन अपने हाथ में पहन लिया । सभी बच्चे यह दृश्य देखकर हैरान रह गए, खुद आशीष भी । आखिर आशीष से रहा न गया और वो वसुंधरा दीदी के पास आकर खड़ा हो गया । कुछ देर बाद उसने अटक-अटक कर वसुंधरा को बताया कि "आज आप में से मेरी माँ जैसी खुशबू आ रही है ।"

            समय पर लगाकर उड़ने लगा। दिन सप्ताह, सप्ताह महीने और महीने साल में बदलते भला कहां देर लगती है ? मगर हर साल के अंत में वसुंधरा को आशीष से एक पत्र नियमित रूप से प्राप्त होता जिसमें लिखा होता कि "इस साल कई नए टीचर्स से मिला । मगर आप जैसा कोई नहीं था ।" 
फिर आशीष का स्कूल समाप्त हो गया और पत्रों  का सिलसिला भी । कई साल आगे और गुज़रे और अध्यापिका वसुंधरा अब रिटायर हो गईं । 

            एक दिन उन्हें अपनी मेल में आशीष का पत्र मिला जिसमें लिखा था-  "इस महीने के अंत में मेरी शादी है और आपके बगैर शादी की बात मैं नहीं सोच सकता । एक और बात .. मैं जीवन में बहुत से लोगों से मिल चुका हूँ किंतु आप जैसा कोई नहीं है....डॉक्टर आशीष  । इसके साथ ही विमान का आने जाने का टिकट भी लिफाफे में मौजूद था । वसुंधरा खुद को रोक सकने की स्थिति में नहीं रह गई थी । 

           उन्होंने अपने पति से अनुमति ली और वह दूसरे शहर के लिए रवाना हो गईं । ऐन शादी के दिन जब वह शादी की जगह पहुंची तो थोड़ी लेट हो चुकी थीं । उन्हें लगा अब तक तो समारोह समाप्त हो चुका  होगा..  मगर यह देखकर उनके आश्चर्य की सीमा  न रही कि शहर के बड़े-बडे डॉ, बिजनेसमैन और यहां तक कि वहां मौजूद फेरे कराने वाले पंडित भी इन्तजार करते करते थक गये थे. कि आखिर कौन आना बाकी है...  मगर आशीष समारोह में फेरों और विवाह के  बजाय गेट की तरफ टकटकी लगाए उनके आने का इंतजार कर रहा था । फिर सबने देखा कि जैसे ही यह पुरानी अध्यापिका वसुंधरा ने गेट से प्रवेश किया आशीष उनकी ओर तेजी से लपका और उनका वह हाथ पकड़ा जिसमें उन्होंने अब तक वह सड़ा हुआ सा कंगन पहना हुआ था और उन्हें सीधा वेदी पर ले गया ।

            वसुंधरा का हाथ में पकड़ कर वह सभी मेहमानों से बोला "दोस्तो आप सभी हमेशा मुझसे मेरी माँ के बारे में पूछा करते थे और मैं आप सबसे वादा किया करता था कि जल्द ही आप सबको अपनी माँ से मिलाऊँगा...! यही मेरी माँ  हैं !"

मित्रों...
            इस सुंदर कहानी को सिर्फ शिक्षक और शिष्य के रिश्ते के कारण ही मत सोचिएगा,  अपने आसपास देखें, आशीष जैसे कई फूल मुरझा रहे हैं जिन्हें आप का जरा सा ध्यान, प्यार और स्नेह बिल्कुल नया जीवन भी दे सकता  है...!