Friday, August 16, 2013

इसके बारे में क्या ख्याल है ?

                   
        जबसे रुपये के इस नये व उपर से कटे हुए गलत वास्तु प्रतीक चिन्ह को शासकीय स्तर पर मान्यता प्राप्त हुई है तबसे न सिर्फ डालर बल्कि दुनिया भर की उल्लेखनीय करंसी की तुलना में भारतीय रुपये का अस्तित्व घटता व कटता ही चला जा रहा है, जो रुपया 5-7 वर्ष पूर्व 39 रुपये = 1 डालर चला करता था वह इस नये प्रतीक चिन्ह के बाद तो पूरी तेजी से फिसलते हुए 62 रुपये = 1 डालर तक आ चुकने के बाद भी लगातार नीचे की ओर लुढकता ही चला जा रहा है, तो क्यों न इस देश के नीति-निर्धारक कर्णधारों को अपने इस पूर्व फैसले पर पुर्निवचार करते हुए इस चिन्ह की मान्यता को तत्काल प्रभाव से समाप्त करके रुपये को इसके पूर्व की स्थिति के मुताबिक ही पुनः परिवर्तित कर देना चाहिये ?

        विशेष जानकारी – पिछले करीब डेढ महिने से ज्योतिष ज्ञान में अपनी रुचि जाग्रत होने और इन्दौर शहर के वयोवृद्ध ज्योतिष आचार्य पं. आर्यभट्ट कलशधर शास्त्री (80 वर्षीय) का सानिंध्य मिल जाने के कारण वर्तमान में मेरा अधिकांश समय ज्योतिष विद्या के गूढ ज्ञान की प्राप्ति में व्यतीत हो रहा है और ब्लाग जगत से मैं इसीलिये फिलहाल करीब-करीब अनुपस्थित दिख रहा हूँ ।

      निश्चय ही कुछ और समय स्थिति ऐसे ही चलती दिखेगी पश्चात् आपके समक्ष अपनी पूर्व सक्रियता को जीवंत बनाते हुए यथासंभव एक और नये ज्योतिष ब्लाग के साथ आपको फिर से दिखाई दूंगा और तब तक भी गाहे-बगाहे आपके समक्ष आता दिखता तो रहूंगा ही ।

     अतः क्षमापना के साथ ही आप सबके प्रति धन्यवाद सहित..





     


   

Friday, June 28, 2013

रस्साकशी - मानव संग प्रकृति की.


           
          गत 16-17 जून को उत्तराखंड अंचल में हुई त्रासदी की भयावहता बयान करने जैसा नया अब कुछ नहीं बचा है किंतु उसी अवधि में दैनिक भास्कर में प्रकाशित एक कविता उन पाठकों के लिये जो किसी कारण से उनकी नजरों से ना गुजरी हो हुबहू पेश है-
समाचार चैनल का संवाददाता जोर-जोर से चिल्ला रहा है,
मां गंगा को विध्वंसिनी और सुरसा बता रहा है,
प्रकृति कर रही है अपनी मनमानी,
गांव शहर और सडकों तक भर आया है बाढ का पानी,

नदियों को सीमित करने वाले तटबंध टूट रहे हैं
और पानी को देखकर प्रशासन के पसीने छूट रहे हैं,
पानी की मार से जनता का जीवन दुश्वार हो रहा है,
गंगा-यमुना का पानी आपे से बाहर हो रहा है,

बैराजों के दरवाजे चरमरा रहे हैं और
टिहरी जैसे बांध भी पानी को रोकने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं,
किसी ने कहा- पानी क्या है साहब तबाही है तबाही,
प्रकृति को सुनाई नहीं देती मासूमों की दुहाई,

नदियों के इस बर्ताव से मानवता घायल हुई जाती है,
सच कहे तो बरसात के मौसम में नदियां पागल हो जाती हैं,

ये सब सुनकर माँ गंगा मुस्कराई और बयान देने जनता की अदालत में चली आई,

जब कठघरे में आकर माँ गंगा ने अपनी जुबान खोली,
तो वो करुणापूर्ण आक्रोश में कुछ यूं बोली,

मुझे भी तो अपनी जमीन छिनने का डर सालता है,
और मनुष्य मेरी निर्मल धारा में सिर्फ कूडा-करकट डालता है,
धार्मिक आस्थाओं का कचरा मुझे झेलना पडता है,
जिंदा से लेकर मुर्दों तक का अवशेष अपने भीतर ठेलना पडता है,

अरे, जब मनुष्य मेरे अमृत से जल में पोलीथिन बहाता है,
जब मरे हुए पशुओं की सडांध से मेरा जीना मुश्किल हो जाता है,
जब मेरी निर्मल धारा में आकर मिलता है
शहरी नालों का बदबूदार पानी
तब किसी को दिखाई नहीं देती मनुष्यों की मनमानी,

ये जो मेरे भीतर का जल है इसकी प्रकृति अविरल है,
किसी भी तरह की रुकावट मुझसे सहन नहीं होती है,
फिर भी तुम्हारे अत्याचार का भार धाराएं अपने ऊपर ढोती हैं
तुम निरंतर डाले जा रहे हो मुझमें औद्योगिक विकास का कबाड,
ऐसे ही थोडी आ जाती है ऐसी प्रलयंकारी बाढ.

मानव की मनमानी जब अपनी हदें लांघ देती हैं
तो प्रकृति भी अपनी सीमाओं को खूंटी पर टांग देती है,
नदियों का पानी जीवनदायी है,
इसी पानी ने युगों-युगों से खेतों को सींचकर मानव की भूख मिटाई है


पर मानव, ये तो स्वभाव से ही आततायी है,
इसने निरंतर प्रकृति का शोषण किया,
और अपने स्वार्थों का पोषण किया
नदियों की धारा को ये बांधता चला गया,
मीलों फैले मेरे पाट को कांक्रीट के दम पर पाटता गया,

सच तो ये है कि मनुष्य निरंतर नदियों की ओर बढता आया है,
नदियों की धारा को संकुचित कर इसने शहर बसाया है,
ध्यान से देखें तो आप समझ जाएंगे,
कि नदी शहर में घुसी है या शहर ही नदी में घुस आया है,

जिसे बाढ का नाम देकर मनुष्य हैरान-परेशान है,
ये तो दरअसल गंगा का नेचुरल सफाई अभियान है,
यही तो नदियों का नेचुरल सफाई अभियान है.

Thursday, June 20, 2013

सत्यानाशी सिगरेट...




           करीब 5 वर्ष पूर्व मेरे दुबले-पतले भाई जो लगभग 65 वर्ष की उम्र के थे और इस धूम्रदण्डिका के अच्छे शौकीन भी उन्हें अचानक अपने शरीर में कमजोरी की शिकायत हुई ।  डाक्टरी परीक्षण से टी.बी. वाले संकेतों के साथ यह चेतावनी भी उन्हें मिल गई की अब यदि जिंदा रहना है तो एक और सिगरेट भी आपके लिये मरणांतक रुप से घातक साबित होगी । मरता क्या न करता की तर्ज पर मजबूरी में उन्होंने सिगरेट पीना बंद भी कर दी किंतु तब तक भी शायद बहुत देर हो चुकी थी । एक दिन अचानक मेरे भतीजे जो उनके व्यवसायिक भागीदार भी थे के पास भाभी का फोन आया कि वे सीने में असहनीय दर्द महसूस करने के साथ सांस नहीं ले पा रहे हैं । तत्काल उन्हें अस्पताल ले जाया गया जहाँ उनकी स्थिति देखकर डाक्टरों ने उन्हें कृत्रिम श्वांस प्रणाली की मदद दिलाने हेतु वेंटीलेटर पर रखकर उपचार प्रारम्भ कर दिया । किंतु निजी अस्पतालों में मरीज के परिजनों से अधिक से अधिक पैसा वसूलने की नीति के चलते डाक्टर सिर्फ उनकी दवाईयां बदल-बदलकर विभिन्न जांचें ही करवाते रहे और इसी त्रासद स्थिति में करीब नौ-दस दिन गुजरवा देने और लगभग दो लाख रुपये उनके परिजनों से वसूलने के बाद भी उनकी मृत देह ही घर वापस आ पाई । इस अवधि में उस वेंटीलेटर मशीन की त्रासद स्थितियों में बांधकर रखे गये उनके शरीर के साथ होश में रहने पर उनकी छटपटाहटपूर्ण स्थिति का कोई भी चित्रण शब्दों में कर पाना शायद सम्भव ही नहीं है ।

           वर्षों पूर्व किसी थिएटर में पिक्चर देखने के दौरान उसमें चलने वाली न्यूज रील में राष्ट्रपति आर. वेकटरमन सिने उद्योग का सर्वाधिक प्रतिष्ठित दादा फालके अवार्ड राजकपूर को देते दिखे थे और दर्शक दीर्घा में बैठे राजकपूर अपने जीवन की अनमोल विरासत वाले उस अवार्ड को लेने के लिये उठकर खडे भी नहीं हो पा रहे थे, तब राष्ट्रपति को स्वयं ही मंच से उतरकर वो अवार्ड उन्हें देने उनके पास आना पडा था । कहने की आवश्यकता ही नहीं है कि राजकपूर स्वयं भी शराब के साथ सिगरेट का इस्तेमाल करते कई चित्रों में देखे जाते थे और उसके बाद वे भी अपनी जीवन-यात्रा को आगे जारी नहीं रख पाए थे । इसका नामुराद शौक हमारी शारीरिक उर्जा को किस तरह प्रभावित करता है इसका एक उदाहरण वर्षों पूर्व प्रदर्शित शत्रुघ्न सिन्हा और विनोद खन्ना अभिनीत फिल्म मेरे अपने की शूटिंग के दौरान इन दोनों कलाकारों की एक स्वीकारोक्ति में देखने में आया था जिसमें दोनों के बीच दो मिनीट की मारा-पिटी की शूटिंग के पश्चात् दोनों को ही संयत होने में दस मिनिट भी कम पड रहे थे क्योंकि तब दोनों ही कलाकार सिगरेट भी पीते थे । एक बार इसकी आदत पड जाने के बाद इसे छोड पाना कितना कठिन हो जाता  है इसका अहसास इसके भुक्तभोगी ही बता सकते हैं । मशहूर अभिनेता आमिर खान संभवतः ऐसे व्यक्तियों में शामिल हैं जो संक्षिप्त समय में ही इसकी आदत लगाकर इसे छोड भी चुके हैं उन्हीं का एक वक्तव्य कभी पढने में आया था कि "एक बार तो मुझे लगा था कि अब जीवन में इससे पूरी तरह से मुक्ति पाना शायद संभव ही नहीं है किंतु दृढ ईच्छाशक्ति के चलते आखिर मैं इसमें सफल हो पाया ।" अपनी सजा के ताजा-ताजा प्रकरण में संजय दत्त ने कोर्ट से विशेष अनुमति सिर्फ इसी नामुराद शौक की खातिर चाही थी कि और कुछ नहीं तो मुझे जेल में ई-सिगरेट पीने की अनुमति दी जावे, जिसे कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया । कुछ दिनों पूर्व फेसबुक पर श्री मलिक राजकुमारजी की भी यही पीडा देखने को मिली थी जिसमें एलोपेथिक दवा Bupro की मदद के साथ उन्होंने बगैर सिगरेट पिएं 14 दिन निकाल देने के बाद भयंकर उदासी व डिप्रेशन जैसी समस्या का उल्लेख किया था ।
 

          और मेरे निजी अनुभवों में -  बचपन के दोस्तों की शेखी से भरपूर मस्तियों के दौर में 16 वर्ष की उम्र में मेरे साथ भी एक बार जो यह शौक जुडा तो हर दिन 15 से 20 सिगरेट नियमित पीते-पीते कुछ तो अनियमित योगासनों के अभ्यास के साथ और कुछ त्रिफला जैसे आयुर्वेदिक बचाव साधनों का संयुक्त प्रयोग करते-करते अपनी उम्र के 62वें वर्ष तक तो सकुशल आ पहुंचा किंतु इस बीच यह महसूस होते रहने पर कि मैं दूर तक चलना, सीढियां चढना जैसे मेहनत के कामों में न सिर्फ अपने से बडों की तुलना में बहुत जल्दी थकने लगा हूँ बल्कि भीड भरे किसी भी बंद वातावरण में उत्पन्न सफोकेशन भी मुझे सामान्य से अधिक विचलित किये दे रहा है । तब अपने उसी भतीजे की सलाह मानकर अपने फेफडों की क्षमता की जांच करवाने हेतु मैंने जब अपना एक ब्रीदिंग टेस्ट करवाया तो डाक्टर की भाषा में परिणाम यह निकला कि आपके फेफडे सामान्य की तुलना में  65%  क्षमता ही दर्शा रहे  हैं और अब भी यदि आपने अपने इस शौक को तिलांजली नहीं दी तो अगले दो वर्षों के बाद आप स्वयं उठकर बाथरुम तक भी नहीं जा पाएंगे । जबकि अभी जितना सक्रिय मेरा शरीर है उसके चलते डाक्टर की ये चेतावनी कतई विश्वास योग्य नहीं लगती किंतु पांच वर्ष पूर्व अपने बडे भाई की जिन स्थितियों में मृत्यु मैं देख चुका हूँ उसके बाद कोई भी व्यक्ति उस चेतावनी को नजर अंदाज करने की मूर्खता तो नहीं कर सकता । फिर क्या किया जावे ? जिस सिगरेट के साथ पिछले 46 वर्षों की अटूट दोस्ती और इसके हल्के-फुल्के नशे का एक नियमित रिश्ता चला आ रहा है उसे किसी भी सिगरेट नहीं पीने वाले व्यक्ति द्वारा मात्र इतना कह देने भर से कि अब इसे बंद करदो, ये इतना आसान तो कतई नहीं रहा है । ऐलोपेथिक दवाओं के सहयोग से इसे छोडने का प्रयास अनिवार्य रुप से डिप्रेशन वाली मनोस्थिति में पहुंचाने का कारण भी बनेगा और तब जबकि पिछले 46 वर्षों के नियमित प्रयोग से शरीर को इसके निकोटीन की जो आदत पड चुकी है उसकी आपूर्ति पूर्ण रुप से तत्काल रुक जाने के परिणाम भी शरीर के लिये हितकारी तो शायद नहीं हो सकेंगे । इन्हीं सब बाध्यताओं के चलते पिछले 7 दिनों से फिलहाल तो बीच का मार्ग निकालकर मजबूरी में ही सही 14-15 की बनिस्बत मात्र 3 सिगरेट रोज पीकर अपने को सिगरेट छोडने के लिये तैयार करने का प्रयास कर रहा हूँ अब देखना यह है कि आगे आने वाले समय में मैं भी अपने इस नामुराद शौक से मुक्ति पा सकूंगा या नहीं ।
 

          इतना विवरण यहाँ इसीलिये देने का प्रयास किया है कि वे सभी बंधु जिन्होंने इस कुटैव को कम या अधिक समय से गले लगा रखा है वे यदि इसे पढें तो इससे मुक्त होने का प्रयास भी समय रहते शीघ्रातिशीघ्र ही कर लें, अन्यथा अंत तो हर हाल में कष्टकारी साबित होना ही है । आशाराम बापू का एक आयुर्वेदिक फार्मूला भी इस दरम्यान देखने में आया है उसके मुताबिक 100 ग्राम सौंफ, 100 ग्राम अजवायन, 30 ग्राम काला नमक और इसमें दो बडे नींबुओं का रस मिलाकर इस मिश्रण को गर्म तवे पर सेंक लें और जब भी सिगरेट-बीडी या तंबाकू की तलब लगे तब इसकी थोडी-थोडी मात्रा मुंह में डालकर चबाते रहें जिससे जब भी बीडी-सिगरेट पीने जैसी स्थिति बनेगी तो शरीर इसके प्रति अरुचि जाग्रत कर सकेगा । दूसरा फार्मूला सिप्ला कंपनी का निकोटेक्स Nicotex 4 नामक च्युइंगम (चिकलेट) के रुप में सामने आ रहा है जिसकी एक गोली करीब पांच घंटे तक आपको इस नशे की तलब नहीं लगने देगी और लगभग हफ्ते-दस दिन लगातार दिन में दो चिकलेट खाकर आप शरीर को इस निकोटीन की आवश्यकता से मुक्त करवा सकेंगे । किंतु ये सब सुने और पढे गये माध्यम भर ही हैं जो आपकी ईच्छाशक्ति के अभाव में व्यर्थ भी साबित हो सकते हैं । अतः मुख्य तो इस नशे को छोडने की प्रबल ईच्छाशक्ति जागृत करना ही इससे मुक्त हो पाने की दिशा में मददगार हो सकता है वर्ना तो सुबह नींद से उठने से लगाकर चाय-दूध पीने, नाश्ता करने, शौच क्रिया के वक्त, भोजन के बाद, क्रोध, चिंता, प्रसन्नता जैसी मानसिकता के साथ, रात में सोते समय और यदि कभी आधी रात को नींद खुल जावे तब भी जान जाय पर चाह न जाय वाली स्थिति में इसके सभी शौकीनों के साथ आपको भी यही सोचते रहना है कि "छूटती कहाँ है ये जालिम मुंह से लगी हुई ।" 


Monday, June 10, 2013

शोषित कहाँ नहीं है स्त्री...?


          कुछ दिनो पूर्व एक घटना पढने में आई थी- किसी बस्ती में रात्रि 12-1 बजे के लगभग किसी लडकी की मर्मभेदी चीखें सुनकर एक उम्रदराज महिला ने अपने झोपडे से बाहर निकलकर देखा तो बेतहाशा भागकर उसके घर के सामने से गुजरती फटी कुर्ती और नीचे से लगभग निर्वस्त्र युवती के पीछे चार लडके उसे पकडने के लिये दौडते आते दिखे । महिला ने झपटकर लाठी उठाकर उन लडकों को ललकारते हुए गांव के लोगों को आवाज लगाई तो वे लडके तत्काल दिशा बदलकर भाग खडे हुए । घबराई कांपती उस युवती को महिला ने अपने घर के वस्त्र और सुरक्षा देकर उस समय उन बलात्कारियों से मुक्त कराया । यहाँ इस घटना का उल्लेख इस विषय की शुरुआत करने मात्र से जुडा होने के कारण चर्चा में आ गया है, बाकि तो किसी भी दिन का कहीं का भी समाचार-पत्र उठाकर देख लिया जावे कहीं बलात्कार, कहीं प्रेम में धोखा, तो कहीं पद या पैसे का लालच देकर किसी भी रुप में हर तरफ स्त्री के इसी शोषित स्वरुप की निरन्तर पुष्टि होते हुए कहीं भी देखा जा सकता है ।

          ताजा संदर्भों में समान अधिकार रखने वाले नक्सलवादी संगठनों में इसी अभियान से जुडी 25 वर्षीया शोभा मंडी की आज ही के समाचार पत्र में पढी यह स्वीकारोक्ति इस लेख का माध्यम बन रही है जिसने इस अभियान में भी पुरुषों की इसी मानसिकता को न सिर्फ विवशतापूर्वक 7 वर्षों तक संगठन के सीनियर कमांडरों द्वारा स्वयं झेला बल्कि अभियान से जुडी हर स्त्री को समूचे समूहों में हर समय पुरुष साथियों द्वारा अपनी हवस का शिकार बनते देखा है । उनका कहना है कि मेरे साथ यह सब तब हुआ जबकि मैं 25-30 सशस्त्र नक्सलियों की कमांडर थी । उनकी स्वीकारोक्ति के मुताबिक नक्सलियों के बीच पत्नियों का आदान-प्रदान, साथी महिला नक्सलियों को मारना-पीटना और उनसे नियमित बलात्कार करना इन समूहों में बेहद आम बात है । इस दरम्यान यदि कोई महिला गर्भवती हो जावे तो उसे अनिवार्य रुप से गर्भपात की पीडा से भी गुजरना ही पडता है क्योंकि बच्चे होने से उनके इस नक्सली अभियान में बाधा आती है । यह महिला इस आंदोलन से इस भ्रम के साथ जुडी थी कि यहाँ महिला और पुरुषों में कोई भेदभाव नहीं होता होगा और सभी महिला-पुरुष एक ही अभियान के अंतर्गत कार्यरत दिखते हैं । संगठन में स्त्रियों के प्रति इस भेदभाव से क्षुब्ध इस युवती ने 2010 में आत्म-समर्पण करके ही इस अनाचार से मुक्ति पाई थी ।

          डाकू साम्राज्ञी फूलन देवी के जीवन पर आधारित द बेंडिट क्वीन फिल्म में भी यही देखा कि अनेकों बार इन्सानी हवस का शिकार बनने पर बदला लेने के लिये डकैत बननी वाली इस ताकतवर महिला डकैत को इस रुप में भी जब-तब स्त्री होने के कारण अपने ही साथियों की हवस का शिकार भी होते रहना पडा था । जहाँ-जहाँ युद्धों में कोई भी सेना जीती है तो सबसे पहले वहाँ की स्त्रियां ही उनकी सामूहिक हवस का शिकार बनती दिखी हैं । जब-जब विस्थापितों की मदद के लिये केम्प लगते दिखे हैं तो वहाँ भी जिन्दा रहने की कीमत स्त्रियों को सबसे पहले अपना शरीर समर्पित करके ही चुकाते हुए हर बार पढा है । जेलों में वर्षों से बन्दी महिलाएं जेल में गर्भवती पाई जाती हैं तो अनाथ आश्रमों में छोटी बच्चीयों तक को रात के अन्धेरे में बडे-बडे नेताओं और रसूखपरस्त लोगों की इसी खिदमत के लिये निरन्तर उपयोग में लाया जाना नियमित रुप से दिखता रहता है । वे लडकियां-युवतियां जो रेल्वे स्टेशन जैसे क्षेत्रों में रात के समय किसी भी कारण से यदि अकेली मिल जाती हैं तो समाचार-पत्रों की सुर्खी बने बगैर वहीं घूमते रहने वाले नशेबाजों की आसान हवस का शिकार बने बगैर शायद ही कभी बाहर आ पाती होंगी । झुग्गी-झोपडी जैसे क्षेत्रों में पलने-बढने वाली लडकियां तो वेश्यावृत्ति जैसे व्यवसाय से कोसों दूर रहने के बावजूद भी आस-पास के युवकों व पुरुषों की इसी हवस का आसान शिकार होते रहने के कारण इसकी अभ्यस्त भी होती चली जाती हैं ।

          पौराणिक व ऐतिहासिक जानकारियों पर यदि नजर डाली जावे तो पुराने युगों में भी ऐसे ही किस्से पढने व चलचित्रों में देखने में आए हैं जहाँ इन्द्र जैसे देवगण भी किसी ऋषि-मुनि की पत्नी से उनके पति के रुप में अपना रुप बदलकर उनका शोषण करते दिखते रहे हैं और चित्रलेखा जैसी ऐतिहासिक नर्तकी जो किसी कर्मठ सन्यासी से प्रभावित हो अपना सब वैभव त्यागकर दीक्षा धारण करके उसके मठ में रहने आ जाती है तो वो भी अंततः उसी सन्यासी की अकस्मात् जागृत हवस की शिकार हो शोषित हुए बगैर नहीं रह पाती है । आधुनिक साधु-संतों के मठों में स्त्रियों के शोषण का यह सिलसिला जब-तब समाचार-पत्रों की सुर्खी बनते दिखता रहता है और गुपचुप चलने वाले कांडों में यहां तक कि तीर्थ क्षेत्रों में दर्शनों के लिये पहुँचने वाले श्रद्धालुओं के समूहों में सुबह शीघ्र दर्शनों के लिये रवाना होने हेतु वहाँ स्त्री-पुरुषों को भोजन प्रशादी के बाद स्नान करके स्त्रियों और पुरुषों को समूह में अलग-अलग कमरों में नियमानुसार वस्त्र बदलवाकर सुलाया जाता है जहाँ स्त्रियों के कमरे से लगे बन्द दरवाजे में उनकी तरफ से लगाई जा सके ऐसी कोई सांकल-चिटखनी नहीं होती । आस्था में लिप्त वे युवतियां प्रशाद में मौजूद नशीली मादकता के प्रभाव में जब सो जाती हैं तब आधी रात को उस बगैर कुंडी के दरवाजे से कमरे में घुसने वाले पंडों-पुजारियों का समूह उनमें से किसी भी स्त्री को भोगें बगैर सुरक्षित नहीं निकलने देता और संकोचग्रस्त वे महिलाएँ अपने पति तक से खुलकर इस अनाचार की शिकायत भी नहीं कर पातीं ।

          ले-देकर इनके जन्मदाताओं के लिये सामाजिक रुप से इनकी सुरक्षा का एक ही उपाय चलन में बचता है कि इनका विवाह कर मानसिक व सामाजिक रुप से इनके प्रति हो सकने वाली ऐसी किसी भी समस्या से इनको व स्वयं को सुरक्षित कर लें । निश्चय ही स्त्रियों की सुरक्षा का इससे अधिक सुरक्षित तरीका दूसरा शायद कोई होगा भी नहीं किन्तु यहाँ भी कई बार काम के प्रति पूर्णतः अनिच्छुक रहने के बावजूद पति की इस मांग के आगे मजबूरीवश ही सही स्त्री को अपने ही पति को भी उस वक्त तो किसी शोषित भोग्या के समान ही क्या बर्दाश्त नहीं करना पडता है ?
  

Thursday, May 30, 2013

कल्पना - स्त्री-विहीन गांव की.


          प्रसूता दर्द से कराह रही है और दाई सहित दो-चार बडी-बूढी औरतें जचगी करवाने में जुटी हैं, कमरे के बाहर स्त्री का पति अपने परिचितों के साथ परेशानहाल बैठा है और परिचित दिलासा दे रहे हैं कि सब ठीक होगा । नवजात शिशु के रोने की आवाज आती है और प्रसूता का पति प्रसन्नता में चम्मच से थाली बजाने लगता है तभी दाई आकर खबर देती है, लडकी...!  थाली बजना बंद, दूध का टब भरवाया जाता है और अगले साल लडके की आस में गांव के लोगों की मौजूदगी में उस नवजात लडकी को दूध के टब में डूबोकर मार दिया जाता है ।

प्रचलित प्रथा के चलते गांव में लडकियों का अकाल पड जाता है और तीस-चालीस वर्षीय कुंवारों की ऐसी फौज खडी हो जाती है जो आस-पास के गांवों में लाख-दो लाख रु. नगद देकर भी विवाह के लिये लडकियां लाने की कोशिश करते हैं पर वहाँ भी लडकियां नहीं मिलती । उन कुंवारे लडकों की मानसिक भूख का दोहन करने और उनके मनोरंजन के प्रयास में नाटक मंडली वाले भी चिकने-चुपडे लडके से ही मेकअप करवाकर धोखे से उनसे ही लडकियों के उत्तेजक नृत्य करवाकर अपना धंधा चलाते हैं और गांव में ही एक व्यापारी उनके मनोरंजन के लिये ब्ल्यू फिल्मों के सार्वजनिक शो अपने घर के टी.वी. पर दिखा-दिखाकर पैसे बनाता है । उत्तेजना की अधिकता में गांव के मुखिया का बडा लडका चलती ब्ल्यू फिल्म के दौरान ही सबकी नजर बचाकर गौशाला में बंधी गाय के पास ही अपनी भडास निकालने पहुँच जाता है और बेचारी अकेली गाय... रंभाती ही रह जाती है ।

          विधुर मुखिया के पांच में से बडे चार लडके हर समय अपने पिता से शिकायत करते दिखते हैं कि कभी हमारी शादी भी करवाओगे कि नहीं, परेशानहाल पिता 'पंडित लडकी ढूंढ तो रहा है' कहते हुए अपनी पीडा व्यक्त करते दिखता है और पंडित, वह खुद भी तो स्त्री शरीर का भूखा ही रहता है । तभी बडे लडके का दोस्त उसे यह बताते हुए खुशखबरी देता है कि परसों मेरी शादी हो रही है, गांव में पिछले 15 वर्षों में यह पहली शादी है, मेरे पिता ने मेरे लिये 14 वर्ष की अप्सरा तलाशी है और तुम्हें शादी में अवश्य आना है । शादी में जिस लडकी की उम्र उसका होने वाला पति 14 वर्ष बताता है वह 9-10 वर्ष की होती है जिसके पिता ने दो-लाख रुपये नगद लेकर अपनी मासूम लडकी अधेड युवक के हाथों सौंपी होती है और फेरों के दौरान पंडित स्वयं आपा खोकर स्त्री का नग्न शरीर देखने की लालसा में उसका लंहगा तक खींच देता है जिससे पल-दो पल के लिये शादी में शामिल सभी ग्रामीणों को आधा-अधूरा नयनसुख हासिल हो जाता है ।

          एक दिन अचानक उस पंडित को यौवनभार से लदी एक जवान और खूबसूरत लडकी जंगल के एकान्त में बैर खाते व गुनगुनाते दिख जाती है, लडकी पंडित को देखकर दौड लगाते हुए अपने घर की ओर भाग लेती है और पीछे-पीछे भागकर पंडित उस लडकी के ऐसे घर तक पहुँच जाता है जिसके मुख्य द्वार पर ताला और चहारदीवारी पर निसरनी (सीढी) लगी रहती है, लडकी सीढियां चढकर अपने घर में कूद जाती है और पंडित भी दरवाजा खटखटाने के बाद उसी सीढी पर चढकर लडकी के गरीब पिता से यह पूछते हुए कि ऐसे लडकी को छुपाकर क्यों रख रखा है, लडकी का पिता कहता है छुपाकर नहीं रखता तो गांव के लोग इसे भी कभी का मरवा देते । अब तो मैं इसके लिये किसी योग्य वर की तलाथ में हूँ । पंडित उस गरीब को एक लाख रु. नगद दिलवाने के वादे के साथ बहुत अच्छे खानदान के बहुत योग्य लडके से शादी करवाने का आश्वासन देते हुए उसका विश्वास जीतकर गांव के मुखिया के पास आता है और मुखिया अपने सबसे छोटे बेटे से गाडी चलवाते हुए पंडित के साथ उसी समय उस लडकी के पिता से मिलता है जहाँ मुखिया के बडे लडके का फोटो देखकर लडकी का पिता रुपये के आश्वासन के बावजूद यह कहते उसके प्रस्ताव में रुचि नहीं लेता कि यदि वो चाहे तो उसके छोटे बेटे के साथ वो यह शादी कर सकता है । 

          परेशान हाल वापसी में मुखिया के दिमाग में एक विचार कौंधता है और उस गरीब व्यक्ति के समक्ष नगद पांच लाख रुपये रखकर उसकी इकलौती लडकी का विवाह अपने पांचों बेटों के साथ एक ही बेदी और मुर्हत में करवा देता है । अब मुखिया के घर में बेटों के साथ पिता की मौजूदगी में बडा बेटा यह गणित बैठाता दिखता है कि बडा होने के नाते फीता तो मैं ही काटूंगा और बाकि के दिन बारी-बारी से चारों भाईयों का नम्बर लगने पर भी जो दो दिन बच रहे हैं उसका बंटवारा कैसे करें । तब औरत मिलने की खुशी में झूमता उसका छोटा भाई दरियादिली दिखाने की शैली में बडे से कहता है कि भैया ये दो दिन भी आप ही ले लो । यह सब सुनकर मुखिया पिता का दिमाग भन्नाने लगता है, वह अपने बेटों से कहता है - नालायकों कुछ मेरे बारे में भी तो सोचो । तुम्हारी माँ को मरें 20 साल हो गये तबसे मैं ही तुम्हें माँ और बाप दोनों के स्थान पर पाल रहा हूँ और आज भी नगद पांच लाख रुपये देकर मैं ही इस लडकी को तुम्हारे लिये घर में लाया हूँ । पिता की ईच्छा समझ बेटे स्वीकृति दे देते हैं और यौवनभार से लदी उस अनछुई बहू के साथ आधी-अधूरी शरीर क्षमता वाला बूढा मुखिया स्वयं फीता काटने का गौरव हासिल करने सुहागरात का श्रीगणेश  खुद ही कर डालता है । 

          असहाय लडकी आंसू बहाती रहती है और हर नये दिन नया पुरुष मुखिया के बेटे के रुप में उसे नोचने-खसोटने पहुँचते रहते हैं । दूध दुहने और पानी खिंचने जैसे काम जिसकी उस लडकी को कभी आदत ही नहीं होती वे भी उसके जिम्मे डाल दिये जाते हैं, जहाँ मानवीय संवेदनाओं के साथ मुखिया का छोटा बेटा उसकी मदद करता है । कुछ तो मुखिया के उस छोटे पुत्र का लडकी के दुःखों के प्रति करुणा का भाव और कुछ हमउम्र होने का मानवीय लगाव, जिसके चलते दिन में जब वे अक्सर साथ में दिखने लगते हैं तो मुखिया पिता सहित शेष चारों भाई षडयंत्रपूर्वक उस छोटे पुत्र की भी हत्या करवाकर उसे भी राह से हटा देते हैं । दुःखियारी लडकी अपने घर के दलित समाज के छोटी उम्र के नौकर के द्वारा इनके जुल्मों की दास्तान पत्र में लिखकर न्याय की आस में अपने पिता के पास पहुँचाती है तो लडकी का पिता जो अब गरीब नहीं रहा, कार में बैठकर मोबाईल हाथ में ले इन्हें धमकाने आता है और अपनी लडकी के शरीर में मुखिया की हिस्सेदारी के मुआवजे के रुप में और एक लाख रुपये नगद लेकर अपनी ही लडकी को दिलासा देते हुए वापस चला जाता है ।  
  
          अपने पिता से शिकायत के दंडस्वरुप मुखिया का परिवार जब उस लडकी पर और अधिक जुल्म करने लगता हैं तो बचाव में लडकी उसी छोटी उम्र के दलित समाज के नौकर के साथ मुखिया के घर से भाग जाती है । मुखिया के बेटे उन्हें ढूंढकर उस दलित नौकर की भी हत्या कर देते हैं और लडकी को दंडस्वरुप मुखिया के आदेश से गाय जैसा रस्सीयों से बांधकर बाडे में जानवरों के साथ पटक देते हैं जहाँ मुखिया के घर का नया नौकर उस लडकी को चोरी-छिपे दूध पिलाकर उसकी जान बचवाता है । इधर मुखिया तो लडकी को अपवित्र हुआ मानकर उसका पीछा छोड देता है किन्तु उसके बेटों के साथ ही गांव के दलित समाज का नेता भी अपने साथी को साथ ले मुखिया के प्रति अपने समाज के लोगों को भडकाने के साथ-साथ चोरी-छिपे इस लडकी का दैहिक शोषण करने लगातार आने लगता है । बाडे में जानवरों के साथ बंधी लडकी जब गर्भवती हो जाती है तो यह खबर जानकर उसकी होने वाली सन्तान (पुत्र) का गौरव हासिल करने का श्रेय बडे बेटे को यह कहते हुए झिडककर की पहली रात तो मैं ही उसके साथ था इसलिये होने वाले इस बच्चे का बाप भी मैं ही हूँ, उस लडकी को बाडे से निकालकर मुखिया फिर से घर में ले आता है जबकि दलित समाज का नेता होने वाले उस बच्चे पर अपना अधिकार मानते हुए दलित समाज की पूरी भीड को लेकर मुखिया के घर धावा बोल देता है । मुखिया क्रोध में उस लडकी पर घासलेट डालकर उसे जलाने लगता है तो उस लडकी के बचाव में मुखिया का घरेलू नौकर मुखिया की हत्या कर देता है ।

                मुखिया के बेटे अपने जुल्मों के कारण दलित समाज की आक्रोशित भीड के हाथों मारे जाते हैं और गर्भवती लडकी पुनः लडकी को ही जन्म देती है ।

          निःसंदेह यह एक काल्पनिक कहानी है जिसे बोनी कपूर व श्रीदेवी ने राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के लिये टेलीफिल्म के रुप में "मातृभूमि" नाम से रोचक शैली में  फिल्मांकित किया है, किन्तु देश के अनेक राज्यों में जहाँ लडकों के समक्ष लडकियों के जन्म का अनुपात 1000 पर 800/850 के मध्य रह जाने मात्र से कुंआरे युवकों की भीड बढती चली जा रही है, वहीं यदि लडकियों को जन्म लेने से इसी प्रकार रोका जाता रहा तो स्थिति और कितनी विकट होगी ?