Monday, June 10, 2013

शोषित कहाँ नहीं है स्त्री...?


          कुछ दिनो पूर्व एक घटना पढने में आई थी- किसी बस्ती में रात्रि 12-1 बजे के लगभग किसी लडकी की मर्मभेदी चीखें सुनकर एक उम्रदराज महिला ने अपने झोपडे से बाहर निकलकर देखा तो बेतहाशा भागकर उसके घर के सामने से गुजरती फटी कुर्ती और नीचे से लगभग निर्वस्त्र युवती के पीछे चार लडके उसे पकडने के लिये दौडते आते दिखे । महिला ने झपटकर लाठी उठाकर उन लडकों को ललकारते हुए गांव के लोगों को आवाज लगाई तो वे लडके तत्काल दिशा बदलकर भाग खडे हुए । घबराई कांपती उस युवती को महिला ने अपने घर के वस्त्र और सुरक्षा देकर उस समय उन बलात्कारियों से मुक्त कराया । यहाँ इस घटना का उल्लेख इस विषय की शुरुआत करने मात्र से जुडा होने के कारण चर्चा में आ गया है, बाकि तो किसी भी दिन का कहीं का भी समाचार-पत्र उठाकर देख लिया जावे कहीं बलात्कार, कहीं प्रेम में धोखा, तो कहीं पद या पैसे का लालच देकर किसी भी रुप में हर तरफ स्त्री के इसी शोषित स्वरुप की निरन्तर पुष्टि होते हुए कहीं भी देखा जा सकता है ।

          ताजा संदर्भों में समान अधिकार रखने वाले नक्सलवादी संगठनों में इसी अभियान से जुडी 25 वर्षीया शोभा मंडी की आज ही के समाचार पत्र में पढी यह स्वीकारोक्ति इस लेख का माध्यम बन रही है जिसने इस अभियान में भी पुरुषों की इसी मानसिकता को न सिर्फ विवशतापूर्वक 7 वर्षों तक संगठन के सीनियर कमांडरों द्वारा स्वयं झेला बल्कि अभियान से जुडी हर स्त्री को समूचे समूहों में हर समय पुरुष साथियों द्वारा अपनी हवस का शिकार बनते देखा है । उनका कहना है कि मेरे साथ यह सब तब हुआ जबकि मैं 25-30 सशस्त्र नक्सलियों की कमांडर थी । उनकी स्वीकारोक्ति के मुताबिक नक्सलियों के बीच पत्नियों का आदान-प्रदान, साथी महिला नक्सलियों को मारना-पीटना और उनसे नियमित बलात्कार करना इन समूहों में बेहद आम बात है । इस दरम्यान यदि कोई महिला गर्भवती हो जावे तो उसे अनिवार्य रुप से गर्भपात की पीडा से भी गुजरना ही पडता है क्योंकि बच्चे होने से उनके इस नक्सली अभियान में बाधा आती है । यह महिला इस आंदोलन से इस भ्रम के साथ जुडी थी कि यहाँ महिला और पुरुषों में कोई भेदभाव नहीं होता होगा और सभी महिला-पुरुष एक ही अभियान के अंतर्गत कार्यरत दिखते हैं । संगठन में स्त्रियों के प्रति इस भेदभाव से क्षुब्ध इस युवती ने 2010 में आत्म-समर्पण करके ही इस अनाचार से मुक्ति पाई थी ।

          डाकू साम्राज्ञी फूलन देवी के जीवन पर आधारित द बेंडिट क्वीन फिल्म में भी यही देखा कि अनेकों बार इन्सानी हवस का शिकार बनने पर बदला लेने के लिये डकैत बननी वाली इस ताकतवर महिला डकैत को इस रुप में भी जब-तब स्त्री होने के कारण अपने ही साथियों की हवस का शिकार भी होते रहना पडा था । जहाँ-जहाँ युद्धों में कोई भी सेना जीती है तो सबसे पहले वहाँ की स्त्रियां ही उनकी सामूहिक हवस का शिकार बनती दिखी हैं । जब-जब विस्थापितों की मदद के लिये केम्प लगते दिखे हैं तो वहाँ भी जिन्दा रहने की कीमत स्त्रियों को सबसे पहले अपना शरीर समर्पित करके ही चुकाते हुए हर बार पढा है । जेलों में वर्षों से बन्दी महिलाएं जेल में गर्भवती पाई जाती हैं तो अनाथ आश्रमों में छोटी बच्चीयों तक को रात के अन्धेरे में बडे-बडे नेताओं और रसूखपरस्त लोगों की इसी खिदमत के लिये निरन्तर उपयोग में लाया जाना नियमित रुप से दिखता रहता है । वे लडकियां-युवतियां जो रेल्वे स्टेशन जैसे क्षेत्रों में रात के समय किसी भी कारण से यदि अकेली मिल जाती हैं तो समाचार-पत्रों की सुर्खी बने बगैर वहीं घूमते रहने वाले नशेबाजों की आसान हवस का शिकार बने बगैर शायद ही कभी बाहर आ पाती होंगी । झुग्गी-झोपडी जैसे क्षेत्रों में पलने-बढने वाली लडकियां तो वेश्यावृत्ति जैसे व्यवसाय से कोसों दूर रहने के बावजूद भी आस-पास के युवकों व पुरुषों की इसी हवस का आसान शिकार होते रहने के कारण इसकी अभ्यस्त भी होती चली जाती हैं ।

          पौराणिक व ऐतिहासिक जानकारियों पर यदि नजर डाली जावे तो पुराने युगों में भी ऐसे ही किस्से पढने व चलचित्रों में देखने में आए हैं जहाँ इन्द्र जैसे देवगण भी किसी ऋषि-मुनि की पत्नी से उनके पति के रुप में अपना रुप बदलकर उनका शोषण करते दिखते रहे हैं और चित्रलेखा जैसी ऐतिहासिक नर्तकी जो किसी कर्मठ सन्यासी से प्रभावित हो अपना सब वैभव त्यागकर दीक्षा धारण करके उसके मठ में रहने आ जाती है तो वो भी अंततः उसी सन्यासी की अकस्मात् जागृत हवस की शिकार हो शोषित हुए बगैर नहीं रह पाती है । आधुनिक साधु-संतों के मठों में स्त्रियों के शोषण का यह सिलसिला जब-तब समाचार-पत्रों की सुर्खी बनते दिखता रहता है और गुपचुप चलने वाले कांडों में यहां तक कि तीर्थ क्षेत्रों में दर्शनों के लिये पहुँचने वाले श्रद्धालुओं के समूहों में सुबह शीघ्र दर्शनों के लिये रवाना होने हेतु वहाँ स्त्री-पुरुषों को भोजन प्रशादी के बाद स्नान करके स्त्रियों और पुरुषों को समूह में अलग-अलग कमरों में नियमानुसार वस्त्र बदलवाकर सुलाया जाता है जहाँ स्त्रियों के कमरे से लगे बन्द दरवाजे में उनकी तरफ से लगाई जा सके ऐसी कोई सांकल-चिटखनी नहीं होती । आस्था में लिप्त वे युवतियां प्रशाद में मौजूद नशीली मादकता के प्रभाव में जब सो जाती हैं तब आधी रात को उस बगैर कुंडी के दरवाजे से कमरे में घुसने वाले पंडों-पुजारियों का समूह उनमें से किसी भी स्त्री को भोगें बगैर सुरक्षित नहीं निकलने देता और संकोचग्रस्त वे महिलाएँ अपने पति तक से खुलकर इस अनाचार की शिकायत भी नहीं कर पातीं ।

          ले-देकर इनके जन्मदाताओं के लिये सामाजिक रुप से इनकी सुरक्षा का एक ही उपाय चलन में बचता है कि इनका विवाह कर मानसिक व सामाजिक रुप से इनके प्रति हो सकने वाली ऐसी किसी भी समस्या से इनको व स्वयं को सुरक्षित कर लें । निश्चय ही स्त्रियों की सुरक्षा का इससे अधिक सुरक्षित तरीका दूसरा शायद कोई होगा भी नहीं किन्तु यहाँ भी कई बार काम के प्रति पूर्णतः अनिच्छुक रहने के बावजूद पति की इस मांग के आगे मजबूरीवश ही सही स्त्री को अपने ही पति को भी उस वक्त तो किसी शोषित भोग्या के समान ही क्या बर्दाश्त नहीं करना पडता है ?
  

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